लगा था एक कवि सम्मेलन,
सभी कवि थे दुखी पति, पंक्तियों में था दर्द, खयाल में बेलन!
मेंने सोचा, चलो हम भी कुछ सुना आएँ,
घर पर तो अब चलती नहीं, चलो बाहर ही चला आएँ।
पहले सोचा कुछ अच्छा ही बोल दूं, सम्मेलन में थी औरतें कम नहीं,
लेकिन पति भाइयों के सूजे चहरे देख, सुनाया वही जो दिल ने चहा,
अंडे पड़ें या टमाटर, किसी चीज़ का कोई गम नहीं।
आज सुबह पत्नी को बोला, “कुछ दिन माइके क्यों नहीं चली जाती?”
पत्नी बोली, “क्यों अब में तुम्हें अच्छी नहीं लगती?”
“अरे माँ के घर जाने को बोला है, क्या गलत था सवाल?”
और इसी बात पर मचा हमारे घर में बवाल!
“नहीं जाती में कहीं, रहो अब सदा इस बला के साथ”,
माँ के घर तो नहीं, मेंने सोचा खुद ही बाहर निकल जाऊँ,
इस से पहले की पड़ें गाली, घुसे और लात।
किसी ने पूछा क्या इन वारदातों से तुम्हें लगता नहीं डर?
अब डरना क्या भाई साहब, झगड़े हैं ही तीन: ज़र, जोरु और जेवर।
दोस्त कहते हैं, शादी की फोटो में तो तुम खूब मुस्कुराये,
अब क्या बताऊँ जनाब, यह तो थी फोटोग्राफर की गुज़ारिश,
इस रात के बाद है बस सूखा यह जीवन, ना कोई सवेरा, ना कोई बारिश!!!
सुनना भाइयों, प्यार से ‘भाग्यवान’ कह कर बुलाता हूँ,
उम्र में बड़ा हूँ, लेकिन बीवी मुझे नाम से बुलाती है,
खाना अभी बनाया नहीं, लगे हाथ बर्तन भी धुलवाती है।
कुँवारा था तो सर सातवें आसमान में रेहता था,
अब तो कूकर की सीटी का धुआँ ही घना लगता है,
रोज़ की अगर चिक-चिक पसंद नहीं कुंवारों, तो मत पड़ना इस बंधन में,
अब तो यह ज्ञानी बस यही बात करता है!!!
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